Anubandh Chatushtaya
अनुबन्ध चतुष्टय क्या हैं…सुसंबद्ध तथा विचार करने योग्य तत्वों को अनुबन्ध कहते हैं। जब भी कोई ग्रन्थ लिखा या पढ़ा जाता है तो यह विचार उठता है कि इस ग्रन्थ को पढ़ने का अधिकारी कौन है? इस ग्रन्थ द्वारा प्रतिपाद्य विषय क्या है? विषय और उस शास्त्र में संबन्ध क्या है? तथा उस शास्त्र का प्रयोजन क्या है।
अनुबन्धों के द्वारा ही पढ़ने वाला व्यक्ति शास्त्र / ग्रन्थ की ओर प्रवृत्त होता है, तथा शास्त्र अपने ज्ञान से पाठक को अपनी ओर आकृष्ट करता है।यदि शास्त्र केआरम्भ में ही अनुबन्धों का वर्णन नहीं होता है, तो शास्त्र पढ़ने में पाठक की रुचि नहीं हो पाती है।
वेदान्त सार में भी मङ्गलाचरण के बाद इन अनुबन्धों का उल्लेख किया गया है, जो निम्नलिखित हैं..
वेदान्त सार में चार अनुबन्ध का उल्लेख किया गया है।1..अधिकारी, 2..विषय, 3..संबन्ध, 4…प्रयोजन
ये चारअनुबन्ध चतुष्टय कहे जाते हैं..
इनकी व्याख्या निम्नलिखित है…
1..अधिकारी ..Adhikari
यह अनुबन्ध चतुष्टय का प्रथम भाग है।
वेदांतसार में अधिकारी किसे माना गया है?
अधिकारी अर्थात वेदान्त सार को पढ़ने के लिये योग्य कौन है ….ग्रन्थ को कौन पढ़ सकता है?
अधिकारी तु विधिवतधीत वेदान्गत्वेनापाततो
अधिगताखिल वेदार्थो अस्मिन् जन्मनि जन्मान्तरे वा काम्यनिषिद्ध वर्जनपुरःसरं
नित्यनैमित्तिक प्रयश्चित्तोपासनानुष्ठानेननिर्गतनिखिल कल्मषतया नितान्तनिर्मलस्वान्तःसाधन चतुष्टयसंपन्नःप्रमाता।
अर्थात.. अधिकारी वह होता है, जिसने इस जन्म में या पूर्व जन्म में वेद -वेदाङ्गों का विधि पूर्वक अध्ययन किया हो,
तथा संपूर्ण वेदों का अर्थज्ञान प्राप्त किया हो, काम्य कर्म तथा शास्त्रों द्वारा निषिद्ध कर्मों का त्याग कर दिया हो,
जिसक मन नित्य नैमित्तिक, प्रायश्चित तथा उपासना कर्मों को करने से सभी पापों से मुक्त हो कर नितान्त स्वच्छ हो गया हो,
ऐसे चार साधनों से सम्पन्न प्रमाता ही अधिकारी (वेदांत पढ़ने का) है।
इसके अतिरिक अधिकारी को किन कर्मों का त्याग करना है, और क्या करना है.. इसका वर्णन इस प्रकार है..
ऊपर बताए गए कर्मों में काम्य कर्म क्या हैं…
क..काम्य कर्म..
काम्यानि स्वर्गादीष्टसाधनानि ज्योतिष्टोमादीनि
अर्थात.. स्वर्ग प्राप्ति आदि इच्छाओं से किये जाने वाले ज्योतिष्टोम यज्ञ आदि काम्य कर्म हैं।
काम्य कर्म वे होते हैं, जो किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिये किये जाते हैं।
ज्योतिष्टोम यज्ञ भी स्वर्ग की कामना से किया जाने वाला यज्ञ है। अतः यह काम्य कर्म है।
ये कर्म पुण्य देने वाले होते हुए भी जन्म मरण के हेतु हैं,अतः इनका त्याग करना चाहिए।
ख..निषिद्ध कर्म..
निषिद्धानि -नरकाद्यनिष्टसाधनानि ब्राहमणहननादीनि
अर्थात.. नरक जैसी अनिष्ट स्थान को प्राप्त करने वाले ब्राह्मण हत्या आदि कर्म, निषिद्ध कर्म हैं।
मनुष्य अज्ञान तथा भ्रम वश कई अनिष्ट कर्मों को अपने अभीष्ट को प्राप्त करने के लिये करता है, जो निषिद्ध कर्म हैं,
अर्थात जिन्हें करने को मन किया गया है। जैसे.. ब्रह्मणो न हन्तव्यः इस श्रुति द्वारा ब्राह्मण की हत्या को निषिद्ध किया गया है तथा
इसी तरह से गो हत्या तथा सुरापान, असत्य भाषण भी धर्मशास्त्रों मे निषिद्ध हैं।
ग..नित्य कर्म..
नित्यानि – अकरणे प्रत्यवायसाधनानि सन्ध्यावन्दनादीनि ।
अर्थात…जिन कर्मो के न करने से हानि होती है, वे नित्य कर्म कहे जाते हैं। जैसे .. संध्यावंदन आदि।
कुछ कर्म हैं जिनके करने से कुछ विशेष पुण्य नहीं होता है पर न करने से पाप बढता है या हानि होती है।
जैसे.. प्रतिदिन दन्त की सफाई करना तथा स्नान करने से कोई पुण्य नहीं होता है, परन्तु इन्हें न करने से शरीर में
गन्दगी एकत्र हो जाती है तथा स्वास्थ्य प्रतिकूल होता है।
उसी प्रकार प्रातःकाल पूजा करना तथा संध्या वन्दन आदि करना भी नित्यकर्म हैं।
अनजाने में मनुष्य से जो पाप कर्म हो जाते हैं, उन्हें एकत्र न होने देना तथा,
उनके निराकरण के लिये प्रातः, सायं वन्दन आदि कर्म करना चहिये।
वेदान्त के अनुसार संध्यादि वन्दन न करने से कोई हानि नहीं है, पर करने से पाप का अवरोध होता है।
नित्य कर्मों को करने का परम उद्देश्य बुद्धि की शुद्धि है। सांसारिक बन्धन से मोक्ष प्राप्त करना ही परम प्रयोजन है।
घ..नैमित्तिक कर्म..
नैमित्तिकानि पुत्रजन्माद्यनुबन्धीनि जतेष्ट्यादीनि
अर्थात.. पुत्र उत्पत्ति आदि के अवसर पर शास्त्रों में निर्दिष्ट जातेष्टि यज्ञ आदि नैमित्तिक कर्म कहे जाते हैं।
नैमित्तिक अर्थात किसी निमित्त ( लक्ष्य ) को प्राप्त करने के बाद किया जाने वाला कर्म नैमित्तिक मर्म कहे जाते हैं।
ये कर्म शास्त्रों द्वारा बताये गये हैं। पुत्र के जन्म होने पर, शास्त्रों में अभिहित विधि के अनुसार,
पिता द्वारा जो यज्ञ आदि के द्वारा जो जातकर्म संस्कार किया जाता है, उसे ही जातेष्टि कहा गया है।
ङ…प्रायश्चित कर्म..
प्रायश्चित्तानि-पापक्षयसाधनानि चान्द्रायणादीनि..
अर्थ .. पाप के निवारण के लिये किये जाने वाले चान्द्रायण आदि व्रत प्रायश्चित कर्म कहे जाते हैं।
मनुष्य द्वारा शास्त्रों में बताये गये कर्मों को न करने से तथा निषिद्ध अर्थात मना किये गये कर्मों को करने से,
जो पाप उत्पन्न होता है, उसके निवारण के लिये जो कर्म किये जाते हैं, उन्हे प्रायश्चित कर्म कहा जाता है।
जैसे चान्द्रायण व्रत.. मनुस्मृति में चान्द्रायण के चार प्रकार बताये गये हैं। इस व्रत में चन्द्रमा के घटने और बढने के साथ आहार बढ़ाया या घटाया जाता है।
च..उपासना कर्म..
उपसनानि सगुणब्रह्म विषयमानसव्यापाररूपाणि शाण्डिल्यविद्यादीनि…
सूत्रार्थ..सगुण ब्रह्म में चित्त की वृत्तियों को स्थिर करने के लिये, जो कर्म किये जाते हैं, उसे उपासना कर्म कहते हैं। जैसे.. शाण्डिल्य विद्या आदि।
शाण्डिल्य विद्या..शाण्डिल्य ऋषि नें सर्वम् खल्विदं ब्रह्म से लेकर स क्रतुं कुर्वीत मनोमयः प्राण शरीरे भारूपः आदि मे कहा है कि संसार और आत्मा कि ब्रह्म रूप में उपासना करनी चाहिये। इसीलिये शाण्डिल्य विद्या कहा गया है।
आदि शब्द से शतपथ ब्राह्मण में कहे गये स आत्मनमुपासीत्, मनोमयं आदि विद्या कि ओर इङ्गित किया गया है।
उपासना कर्मों को करने का परम् प्रयोजन चित्त को एकाग्र करना है।
अनुबन्ध चतुष्टय
साधन चतुष्टय..क्या है..
साधन चतुष्टय के बारे में वेदांत में बताया गया है कि..
साधनानि -नित्यानित्यवस्तुविवेकेहामुत्रार्थफलभोगविराग शमादिषट्कसंपत्तिमुमुक्षित्वानि..
सूत्रार्थ.. नित्य तथा अनित्य वस्तु का विवेक, ऐहलौकिक तथा पारलौकिक फल के भोग से विराग अर्थात अनासक्ति शमादि छः संपत्तियां तथा मोक्ष प्राप्ति की कामना, ये चार साधन हैं।
इनमें प्रथम साधन दूसरे साधन को प्राप्त करने का साधन है, दूसरा तीसरे को, तथा तीसरा चतुर्थ को प्राप्त करने का साधन है
वेदान्त पढ़ने का आधिकारी होने के लिये उपरोक्त चार साधनों से युक्त होना आवश्यक है।
1..नित्य अनित्य वस्तु विवेक क्या है..
नित्यानित्यवस्तुविवेकस्तावद् ब्रह्मैव नित्यंवस्तुतोऽन्यदखिलम् नित्यमिति विवेचनम्।।
केवल ब्रह्म ही नित्य है, उसके अतिरिक्त शेष सम्पूर्ण संसार अनित्य है, इस प्रकार का विवेचन नित्य-अनित्य वस्तु विवेक है।
जो काल स्थान आदि से बंधा नहीं है वह नित्य है। जैसे ब्रह्म क्योंकि यह तीनों कालों से परे है। यह श्रुति वाक्यों से प्रमाणित भी है…
निजं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मम्। अजो नित्यः शाश्वतः। आदि
संसार की सभी वस्तुएं काल से बंधी हैं, अतः अनित्य हैं.. श्रुति वाक्य.. नेह नानास्ति किञ्चन।
यो वै भूमा तदमृतं यदल्पं तन्मर्त्यं।
2..इहामुत्रार्थ फलभोगविराग..
इस लोक से प्राप्त होने वाले सुन्दर पदार्थ कर्म से उत्पन्न होने के कारण अनित्य हैं…
परलोक प्राप्त होने वाले अमृत आदि पदार्थ भी कर्म से प्राप्त होने के कारण अनित्य होंगे, इस प्रकार निश्चय करके ऐहलौकिक तथा पारलौकिक वस्तुओं से विरक्त होना इहामुत्रार्थ फलभोगविराग है।
3..शमादि षट् संपत्ति..
शमादयस्तु शमदमोपरतितिक्षासमाधानश्रद्धाख्याः
अर्थ..शम दम उपरति, तितिक्षा, समाधान और श्रद्धा ये षट् संपत्त्तियां हैं।
1..शम. क्या है..
शमस्तावद. श्रवणादिव्यतिरिक्त विषयेभ्यो मनसो निग्रहः
अर्थ…श्रवण – मनन आदि के अतिरिक्त संसारिक विषयों की ओर बार बार जाते हुए मन को रोकने की वृत्ति शम कही जाती है।
शम, मन की विशिष्ट वृत्ति है जो मन को भौतिक सुख संपत्ति की ओर जाने से रोकता है।
श्रवण आदि अर्थात वेद शास्त्रों का अध्ययन, मनन, चिन्तन तथा उसका आचरण कहा गया है।
2..दम..वाह्येन्द्रियनाम् तद्व्यतिरिक्त विषयेभ्यो निवर्तनम्
अर्थात ब्रह्म के साक्षात्कार के साधन वेद अध्ययन आदि के अतिरिक्त अन्य विषयों से अपनी इन्द्रियों को हटा लेना दम है।
3..उपरति.. निवर्तितानामेतेषां तद्व्यतिरिक्तविषयेभ्यो उपरन्माणमुपरतिस्थवाविहितानांकर्माणां विधिना परित्यागः।
वाह्य विषयों की ओर जाने से रोकी गई इन्द्रियों को ब्रह्म के अतिरिक्त विषयों से निरोध अर्थात रोकना उपरति है।
या शास्त्रों के द्वारा बताये गये कर्मों का शास्त्रों के द्वारा बताई गयी विधि से त्याग करना उपरति है।
4..तितिक्षा…शितोष्णादिद्वन्द्वसहिष्णुता
अर्थात सर्दी, गर्मी आदि को शरीर का धर्म समझ कर सहन करना तितिक्षा है।
मान -अपमान, सुख -दुख, सर्दी – गर्मी आदि को यह मानकर सहन करना चहिये कि ये सब तो शरीर के धर्म हैं, आत्मा को यह सब कुछ नहीं अनुभूत होता है।
5..समाधान…मन के वश में हो जाने पर उसके अनुरूप विषयों में लगाने को समाधि कहते हैं। अर्थात
मन के वश में हो जाने पर उसे श्रवण मनन निदिध्यासन आदि में ही एकाग्र कर देना तथा इन्हीं का अनवरत चिन्तन करना समाधान है।
6.. श्रद्धा…गुरुपदिष्टवेदान्तवाक्येषु विश्वासः श्रद्धा..
अर्थात गुरु के द्वारा कहे गये वाक्यों मे विश्वास श्रद्धा है।
4..मोक्ष प्राप्ति की इच्छा..
मुमुक्षत्वं -मोक्षेच्छा… मोक्ष प्राप्ति की कामना ही मुमुक्षत्व है।
2.. विषय..
यह अनुबन्ध चतुष्टय का दूसरा भाग है।
“जीवब्रह्मैक्यं शुद्धचैतन्यं प्रमेयं तत्रैव वेदान्तानां तात्पर्यात् “
अर्थ .. इस वेदान्तसार का विषय – जीव और ब्रह्म का एक होना तथा सर्वज्ञत्व और अल्पज्ञत्व आदि विरुद्ध धर्मों से विमुक्त, शुद्ध चैतन्य का ज्ञान है। यही वेदान्त वाक्यों का लक्ष्य है।
वेदान्त के अनुसार सर्वज्ञत्व और अल्पज्ञत्व ये माया द्वारा आरोपित हैं, वास्तविक नहीं हैं। ये उपाधियों के कारण भिन्न प्रतीत होते हैं। इस भिन्नता को मिटा देने पर केवल चैतन्य अंश शेष रहता है। यही जीव और ब्रह्म का ऐक्य है तथा परमार्थिक है।
अज्ञान की उपाधि नष्ट हो जाने पर जीवत्व नष्ट हो जाता है, और वह ब्रह्म ही हो जाता है..ब्रह्म विद् ब्रह्मैव भवति।
3..संबन्ध..
यह अनुबन्ध चतुष्टय का तीसरा भाग है।
सूत्र..सम्बन्धस्तु-तदैक्यप्रमेयस्य तत्प्रतिपादिकोपनिशत् प्रमाणस्य च बोध्य – बोधकभावः
सूत्रार्थ.. उन दोनों अर्थात जीव और ब्रह्म का ऐक्य.. एक होना तथा उनके प्रतिपादक उपनिषत् वाक्यों का बोध्य बोधक भाव, संबन्ध है।
अर्थात जीव और ब्रह्म का अभेद अर्थात जीव और ब्रह्म एक ही है, उनमें कोई भेद नहीं है, यही बात वेदान्त का विषय है, तथा इस भाव का प्रतिपादन करने वाले उपनिषत् वाक्यों का बोध्य बोधक भाव है यही संबन्ध है।
वेदान्तसार का विषय है जीव और ब्रह्म का अभेद होना, तथा उपनिषद इस बात के प्रतिपादक और प्रमाण हैं।
अतः उपनिषद और वेदान्त के विषय में बोध्य – बोधक भाव संबन्ध है।
बोध्य अर्थात जानने योग्य, जिसका ज्ञान हो सके। बोधक..अर्थात ज्ञान कराने वाला शास्त्र
4.. प्रयोजन..
यह अनुबन्ध चतुष्टय का चतुर्थ भाग है।
प्रयोजनं तु तदैक्य प्रमेयगताज्ञाननिवृत्तिः, स्वरूपानन्दावाप्तिश्च “तरति शोकम् आत्मवित् ” इत्यादि श्रुतेः ” ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति ” इत्यादि श्रुतेश्च ।
सूत्रार्थ.. इस वेदान्तसार का प्रयोजन, जीव और ब्रह्म के ऐक्य के ज्ञान के मध्य आने वाले अज्ञान की निवृत्ति हो कर आत्मा के स्वरूपानन्द की प्राप्ति है।
वेदान्तसार का मुख्य प्रयोजन अज्ञान का निवारण/ निवृत्ति तथा आत्मा के स्वरूपानान्द की प्राप्ति है।
आत्मगत अज्ञान तथा तथा उस अज्ञान से उत्पन्न संपूर्ण विकार के समाप्त होने पर ही अखण्डानन्द ब्रह्म की प्राप्ति होती है। और इसे प्राप्त करना ही वेदान्त का प्रयोजन है।
इति अनुबन्ध चतुष्टय
अज्ञान क्या है..
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